महिला दिवस की बधाइयाँ यूँ मुझको स्वीकार नहीं

महिला दिवस की बधाइयाँ यूँ मुझ को स्वीकार नहीं।
 स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं ।।
 
 क्यों धृतराष्ट्र की भरी सभा,
 द्रौपदी की चीखें थी सुनने को तैयार नहीं?
 क्यों धरती में समाती हुए सीता के दर्द का ,
 रामराज में भी किसी को एहसास नहीं ?
 सतयुग बीता, द्वापर बीता ,त्रेता बीता,
 अब और युगों का इंतजार नहीं ।
 क्यों युगों- युगों के बाद भी है कहीं मेरा सम्मान नहीं?
 
महिला दिवस की बधाइयाँ यूँ मुझ को स्वीकार नहीं ।
स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं ।।

क्यों निर्भया की चीत्कारे हमें सुनाई नहीं पड़ी ?
या थी चीखों की तीव्रता इतनी ,
कि हमें बहरा बना गई होंगी? 
आज भी उन्नाव की चीत्कारों से
 है कोई भी शर्मसार नही।
 आयोग बने सुनवाई हुई,
  इन सब में सदियां बीत गई।
क्यों स्त्रीत्व कलंकित करने पर भी ,
त्वरित सजा का प्रावधान नहीं ?

महिला दिवस की बधाइयाँ यूँ मुझको को स्वीकार नहीं।
स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं।। 

कानून बने ,संविधान बने ,
सड़कों पर कैंडल मार्च हुए, 
अखबारों में फोटो छपवा कर ,नेतागण पहरेदार बने।
 महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग एवं एनजीओ सारे,
 स्त्रीत्व के रक्षक बन वाहवाही के हकदार बने ।
 क्यों आयोगों से,न्यायालयों से ,
 अब साजिश की बू आती है? 
 जब अपनी ही कोई बेटी ,
 मौत की भेंट चढ़ाई जाती है।
  बिके हुए आयोगों से, न्यायपालिका एवं नेताओं से 
  बिगड़ैल दबंगों के दलालों से,
  अब इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं ।
  
महिला दिवस की बधाइयाँ यूं मुझ को स्वीकार नहीं।
स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं।। 

  मुखौटों में छिपा इनका यह चेहरा ,
  अब हम को स्वीकार नहीं ।
  क्यों अपने ही घर में लाडो को ,
  खुलने का खिलने का अधिकार नहीं ?
  महिला दिवस की बधाइयाँ यू
 मुझ को स्वीकार नहीं।
  स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं।।
  
 क्यों सच सामने आने पर भी ,
 तुम जल्द उन्हें देते फांसी नहीं ?
  क्यों उँची कुर्सी पर बैठ,
  तुम खुद को ही बेच डालते हो?
  क्यों सारा सच तुम्हारे सामने होने पर भी,
  चीख-चीख कर गुनाह बयां करते ,
  जिंदा सबूत तुम्हें दिखाई देते नहीं ?
  क्यों इन चीत्कारों को अनसुना कर,
 तुम रिपोर्ट कुछ और ही बना जाते हो,
 समाज के दरिंदों को भी बचा कर ले जाते हो ?
 क्यों स्त्रीत्व सुरक्षा के प्राथमिक दायित्व को,
 भूल तुम दु:शासन को भी बचा ले जाते हो ? 
 क्यों अब तक रक्षक बनने का ढोंग किया है ,
 जबकि होता है सच शर्मसार यहीं?
 क्यों सतयुग के राम की तरह,
 कोई रावण वध को तैयार नहीं ?
 
 महिला दिवस की  मुझ को स्वीकार नहीं।
 स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं ।।
 
 तोड़ भी दो अब बेड़ियों को, 
 कर दो मुक्त मुझे अब तुम।
अजीब विडंबना इस समाज की ,
बिन सुहाग इसी स्त्रीत्व को ,
सौभाग्यशाली कहलाए जाने का भी अधिकार नहीं।
 स्त्रीत्व मेरा पुरुषत्व के इस सम्मान का मोहताज नहीं ।
 देना ही है तो पंख दे दो ,
 पर कटे पंखों से मैं उड़ने को तैयार नहीं ।
 
 महिला दिवस की बधाइयाँ यूं मुझको स्वीकार नहीं।
 स्त्रीत्व के सम्मान का यह दोहरापन स्वीकार नहीं ।।
 

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