मृत्युंजय

परसों जब मैं ऑफिस से घर को लौट रही थी ।
मेरी आँखे अपने आप ही बंद हुये जा रही थी।
बड़ी मुश्किल से कार की स्टीयरिंग संभाली थी।
आँखे खुली रहे इसमें पूरी ताकत लगा डाली थी।
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घर पहुँचते पहुँचते मेरा शरीर बेदम हो चुका था।
अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत खो चुका था।
जैसे - तैसे मैंने अपना हाथ पैर मुँह धोया था।
मेरा शरीर बेसुध हो बिस्तर पर गिर चुका था।
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पूरी रात मेरा बदन तेज बुखार से तप्त हो रहा था।
गले में दर्द और तेज खराश भी शुरू हो चुका था।
साथ में बहती नाक ने शक को और गहरा दिया था।
भयावह महामारी का टेस्ट पॉजिटिव आ चुका था।
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डॉक्टर ने दवाइयाँ दी और जल्दी ही ठीक हो जाओगे ऐसा कह कर मेरा ढांढस बढाया था। 
शरीर शिथिल होने पर इंजेक्शन भी लगाया था।
प्राण दायी ऑक्सीजन देकर जीवन बचाया था।
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पिछले कई दिनों से मैं ऑफिस नहीं जा पाई थी।
ऑफिस ने आपदा निपटने को समिति बनाई थी।
मेरा हाल जानने की बजाय उनका काम होगा कैसे इसलिए ऑफिसर एवं कस्टमर्स ने फोन घुमायी थी।
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मन विचलित हो चला था साँसे उखड़ने लगी थी। बार बार सोचती दुबारा क्या कभी गा भी सकूँगी ? मेरे आराध्य ने मृत्युंजय बन मेरी साँस बचा ली थी।
मेरे अपनों की दुआओं ने ही ये अनहोनी टाली थी।
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इस कठिन समय ने ही जिंदगी के सबसे खूबसूरत एहसास से रूबरू किया था।
जब उनकी आँखों में मैंने मुझे खोने का दर्द और अपने लिए बेइंतहा मुहब्बत देखा था।
बाकी की चंद साँसे काटने के लिए ये खूबसूरत एहसास काफी था।
उन चंद पलों में ही  मैंने एक पूरा जीवन जी लिया था।
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