नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,नहीं मैं कमजोर नहीं।

नहीं मैं कमजोर नहीं।
नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,
नहीं मैं कमजोर नहीं।

उससे भी ज्यादा तनाव झेलती हूँ,
कभी टूटती हूँ, कभी बिखरती हूँ,
पर हर बार अपने को सहेजती हूँ,
 अपनी ही टूटन को संजोती हूँ।
बिखरना चाहूँ भी तो नहीं बिखर सकती मैं,
उन्हें इस तरह जीतने नहीं दे सकती मैं,

 क्योंकि मैं कमजोर नहीं,
 नही मैं कमजोर नही,
नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,
नहीं मैं कमजोर नहीं।।

उनका तो पूरा एक गैंग है,
वो शातिर हैं, चालबाज हैं,
अपनी बादशाहत कायम रखने के लिए कुछ भी कर सकते हैं,
किसी भी हद तक जा सकते हैं,
उनकी तरकश में जहर बुझे घातक अदृश्य तीर हैं
जिसके पाश में मुझे जकड़ रखा है,
मैं छटपटाहट महसूस करती हूँ,
अपने आप को खत्म करने का ख्याल भी आता है,
पर जैसे ही ये एहसास होता है कि मेरा ये कदम तो उनके मंसूबों को पूरा करने में ही सहायक है,
मैं उस भयंकर पीड़ा में भी एक आत्मविश्वास जगाती हूँ,
अपने आप को पहले से कहीं और मजबूत पाती हूँ।

क्योंकि मैं कमजोर नहीं,
 नही मैं कमजोर नही,
नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,
नहीं मैं कमजोर नहीं।।

जितना ही वे मुझ पर जुल्म ढायेगें,
मुझे और ज्यादा मजबूत पायेंगे।
अपने आप को खत्म करने के बाद ,
अब मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं है,
फिर डर किस बात का!
कुछ लोग सब कुछ सहने के बाद ऑटो बायोग्राफी लिखते है,
कुछ मजबूरियों को जीते हैं,
कुछ मर मर कर जीते हैं,
कहते है डर के आगे जीत है,
इसलिए हम डर को जीते है,
एक मजबूत भ्रस्ट तंत्र के खिलाफ अपनी जीत को जीते हैं,
वो चाल चलते हैं, जाले बुनते हैं,
यही तो हार है उनकी,
मेरा आत्म विश्वास से जगमगाता चेहरा,
मेरा शांत चित्त मुस्कुराता चेहरा,
मरने के बाद नहीं, 
जीते जी उनके चेहरे से नकाब उठाने के बाद
 मेरा दमकता चेहरा,
 
 क्योंकि मैं कमजोर नहीं,
 नहीं मैं कमजोर नहीं
 मैं सुशांत सिंह राजपूत नहीं।
 नही मैं कमजोर नही।
 
हार को भी मात देने का जूनून है
जिन्दगी बेबाकी से जीने का सुकून है,
हर कमजोर पल को विजय घोष बनाने का जज़्बा है,
उन्होंने मारने में कोई कसर ना छोड़ी,
और मुझमें जिंदगी जीने की जिद बाकी है।
मैं कमजोर  नहीं क्योंकि मुझमें कहने का हौसला बाकी है
बिखर जाऊँ,गिर जाऊँ तो कोई गम नही,
गिर कर उठने का जज्बा अभी बाकी है।

क्योंकि मैं कमजोर नहीं,
नही मैं कमजोर नही।
नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,
नहीं मैं कमजोर नहीं।।

 हर दिन ना जाने कितने ही अनकहे, अनसुने
 सुशांत सिंह गुमनामी में मौत को गले लगाने पर मजबूर किये जाते हैं,
 अपनी दर्द भरी दास्ताँ किसी को कह नहीं पाते हैं,
 उस जख्म की तासीर कितनी रही होगी,
 जो उसने बेजुबान हो के सही होगी,
 काश उनमें भी कहने की हिम्मत होती,
 दर्द ही सही बाँटने की दस्तूर निभाई होती,
 आसमाँ को छूने की जिद में, 
 जमीं से हाथ छुड़ाई नहीं होती,
 तो शायद नहीं यकीनन जिंदगी यूँ मजबूर नही होती,
 आओ आज अपने आप से वादा करें, 
 अपने आप से कहें 
 
 नहीं मैं कमजोर नहीं,
 नही मैं कमजोर नही,
नहीं मैं सुशांत सिंह राजपूत नही,
नहीं मैं कमजोर नहीं।।
 

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