28 नवंबर 1999, एक ट्रेन यात्रा -जो मेरे मानस पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ गई-सर्दियों की ठिठुरती अँधियारी रात थी। ट्रेन अपनी पूरी गति में दौड़ रही थी।उसे भी मुझे अपने घर पहुचने की जल्दी का शायद अंदाजा था । रात्रि के 10:00 बजे होंगे एक स्त्री अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए लिट्टी बेच रही थी और सामना कर रही थी पुरुष प्रधान समाज के व्यंग बाणों की।अब तक कितनों को खिला चुकी हो ,हमें भी तो खिलाओ, तुम्हारे स्वाद का तो जवाब नहीं, हम सबको बारी-बारी से खिलाओ जैसे द्विअर्थी सवालों का वो कमसिन सी स्त्री अपने अदम्य साहस, निडरता और प्रभावी शैली में जवाब दे रही थी। काली अंधियारी रात उसे डरा नहीं पा रही थी।उसकी जिम्मेदारियों ने शायद उसमें अद्भुत आत्मबल का संचार कर उसे फौलाद का बना डाला था। उसके अंदर किंचित मात्र भी घबराहट नहीं थी और वह बड़े ही साहस के साथ प्रत्येक व्यंग का जवाब देकर उन्हें निरुत्तर कर रही थी।
पुरुष प्रधान समाज के इस नग्न स्वरूप को देखकर मैं हैरान थी और सोचने पर मजबूर थी कि हमारे समाज में जिस स्त्री को देवी का दर्जा देकर उसकी पूजा की जाती है, उसी नारी समाज के साथ पुरुष का यह कैसा दोहरा मानदंड है? उस स्त्री का साहस एवं परिस्थितियों से हार ना मानना स्त्री समाज के लिए सचमुच अनुकरणीय था जो मुझे हर परिस्थिति का दृढ़ता से सामना करने की सीख दे , कुछ नवसंचार , नव सृजन कर गया ।