बैंक के माध्यम से स्वयं सहायता समूह का देश की प्रगति में योगदान(बिहार के विशेष संदर्भ में)

स्वयं सहायता समूह का देश की प्रगति में काफी महत्वपूर्ण योगदान है। अगर हम बिहार के विशेष संदर्भ में देश की प्रगति में स्वयं सहायता समूह के योगदान की बात करें तो यह अपने आप में एक कीर्तिमान है और स्वयं सहायता समूहों के इस अदभुत मुकाम को हासिल करने में भारतीय बैंकों की भूमिका बेमिसाल है।
जैसा कि हम सबको पता है कि बिहार आर्थिक रूप से एक पिछड़ा हुआ राज्य है।सरकार एवं स्वयं सेवी संस्थाओं की तमाम कोशिशों के बावजूद अन्य राज्यों की तुलना में यहाँ पर औद्योगिक विकास अपेक्षाकृत काफी कम हुआ है।
बिहार, कई कारणों से विभिन्न क्षेत्रों में आज भी पिछड़ा हुआ है. बिहार बंटवारे के बाद प्राकृतिक संसाधन, कोयला खदान, खनिज संपदा सब झारखंड के हिस्से में चले गए. ऊपर से बाढ़-सुखाड़ जैसे प्राकृतिक प्रकोप की वजह से बिहार बार-बार उठने की कोशिश करता है, पर उसे फिसलना पड़ता है. इसका सर्वाधिक असर राज्य के ग्रामीण जनजीवन पर पड़ता है।
बिहार की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज भी मौसम आधारित कृषि पर निर्भर हैं। खेतिहर एवं गैर खेतिहर मजदूर छोटे-मोटे व्यावसायिक उद्यमों के रूप में काम करके अपना जीविकोपार्जन करते हैं एवं उन्हें साल के तीन सौ पैंसठ दिन रोजगार उपलब्ध नहीं हो पाता है।
बिहार की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने पेट की क्षुधा शांत करने के लिए रोज ही कुआँ खोदता है एवं रोज ही प्यास बुझाता है। साक्षरता दर भी मानकों के अनुरूप नहीं है परिणामस्वरूप बढ़ती हुई जनसंख्या का दबाव एक कमाने वाला और अनेक खाने वाले के रूप में सामने आता है।अगर परिवार में एकमात्र कमाने वाला व्यक्ति गैरजिम्मेदाराना हरकतें मसलन जुए और शराब जैसी लतों का आदि हो तो महिलायें और बच्चें दयनीय स्थिति में जीवन यापन करने को विवश हो जाते हैं।
इन्हीं विवशताओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा महिलाओं के स्वयं सहायता समूह को रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बनाया जाता है ताकि महिलाओं का स्वाभिमान बना रहे और वे अपने परिवार और बच्चों की उचित परवरिश एवं देखभाल कर सके और समाज के विकास में कदम से कदम मिलाकर चल सकें और अपने राज्य एवं देश की आर्थिक प्रगति में अपनी महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वाहन कर सकें।
जिस प्रकार एक महिला शिक्षित के शिक्षित होने से पूरा का पूरा परिवार शिक्षित हो जाता है ठीक उसी प्रकार एक महिला के आत्म निर्भर होने से पूरा परिवार सुखी सम्पन्न जीवन व्यतीत कर पाता है एवं किसी भी आकस्मिक विपदा को झेलने एवं उससे उबरने में सक्षम हो जाता है।यही कारण है कि महिलाओं का रोजगारोन्मुखी समूह बनाकर उन्हें वित्तीय मदद कर उनकी आमदनी को बढ़ाकर जीवन स्तर में सुधार करते हुए देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाते हुए स्वयं सहायता समूह के प्रत्येक महिला की आमदनी को सन 2024 तक एक लाख रुपये सालाना करने का सरकार का लक्ष्य है जिसे पूरा करने में बैंक अपने उत्तरदायित्व को बखूबी निभा रहे हैं।
आइए सबसे पहले ये जानते है कि ये स्वयं सहायता समूह क्या हैं और किस प्रकार कार्य करते हुए देश की प्रगति में अपना अहम योगदान दे रही है:-
स्वयं सहायता समूह कुछ ऐसे लोगों का एक अनौपचारिक संघ होता है जो अपने रहन-सहन की परिस्थितियों में सुधार करने के लिये स्वेछा से एक साथ आते हैं।
सामान्यतः एक ही सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों का ऐसा स्वैच्छिक संगठन स्वयं सहायता समूह कहलाता है, जिसके सदस्य एक-दूसरे के सहयोग के माध्यम से अपनी साझा समस्याओं का समाधान करते हैं।
स्वयं सहायता समूह स्वरोज़गार और गरीबी उन्मूलन को प्रोत्साहित करने के लिये स्वयं सहायता की धारणा पर विश्वास करता है।
स्वयं-सहायता समूह 10-20 आम तौर पर निम्न-आय वर्ग की महिलाओं द्वारा गठित समूह हैं जो मोमबत्तियाँ, कृत्रिम आभूषण, फुटपाथ विक्रेता, फेरीवाले, सिलाई के काम, खुदरा दुकानें, पशुधन पालन आदि जैसी आजीविका गतिविधियों में शामिल हैं।
एक बार समूह बन जाने के बाद, समूह के सदस्यों को अपनी कमाई से सुविधाजनक रूप से बचाई गई राशि से समूह के सामान्य कोष में योगदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। सदस्यों द्वारा बनाए गए फंड का उपयोग उनकी आय सृजन गतिविधियों और आकस्मिक ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ब्याज दर, ऋण की अवधि और समूह द्वारा तय की गई अन्य शर्तों पर आंतरिक रूप से उधार देने के लिए किया जाता है।
स्वयं सहायता समूह-बैंक लिंकेज कार्यक्रम 1992 में नाबार्ड की पहल पर शुरू किया गया था। एसबीएलपी का मूल विचार हमारी आबादी के असंगठित क्षेत्र को औपचारिक बैंकिंग क्षेत्र से जोड़ना है। आमतौर पर आबादी का यह वर्ग निम्न-आय से है जो अपनी वित्तीय जरूरतों को सीमित अनौपचारिक स्रोतों जैसे साहूकारों, व्यापारियों, परिवार और दोस्तों आदि के माध्यम से पूरा करता था। इसलिए बैंकिंग सेवाएं प्रदान करना सरकार का एक बड़ा प्रयास था। कमजोर और असंगठित आबादी के पास औपचारिक बैंकिंग तक पहुंच का अभाव है।
बैंकों ने कुल वित्तीय समावेशन की अवधारणा को अपनाते हुए एसएचजी सदस्यों की संपूर्ण ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए आयाम खोलें है , जैसे आय सृजन गतिविधियां, सामाजिक आवास, शिक्षा, विवाह आदि जैसी ज़रूरतें और ऋण अदला-बदली।
स्वयं सहायता समूहों के लिए सरलीकृत मानदंडों के तहत एसएचजी के बचत बैंक खाते खोलते समय एसएचजी के सभी सदस्यों की ग्राहक देय परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती है
एसबीएलपी के तहत, इस प्रकार गठित एसएचजी बचत खाता खोलकर एनजीओ के माध्यम से बैंकों से जुड़ जाते हैं, जिन्हें आमतौर पर स्वयं सहायता संवर्धन संस्थान के रूप में जाना जाता है। एसएचजी को बैंकों द्वारा बचत से जुड़े ऋण स्वीकृत किए जा सकते हैं।बचत से ऋण अनुपात 1: 1 से 1: 4 तक भिन्न हो सकता है। फिर भी, अच्छी तरह से विकसित एसएचजी के मामले में, बैंकों ने अपने विवेक के अनुसार बचत की चार गुना सीमा से अधिक ऋण दिए हैं। बैठकों की नियमितता, बचत, धन के रोटेशन के साथ-साथ आंतरिक रूप से उधार दिए गए धन की वसूली, आय सृजन, खातों की पुस्तकों के रखरखाव आदि के संबंध में संबंधित समूह की गतिविधियों के मूल्यांकन पर बैंकों द्वारा सीमाएं स्वीकृत की जाती हैं। एसएचजी को ऋण देने वाले प्रत्येक बैंक के पास एक राज्य क्रेडिट योजना, जिला क्रेडिट योजना, ब्लॉक क्रेडिट योजना होती है।
₹ 25,000 तक के प्राथमिकता क्षेत्र के ऋण पर कोई ऋण संबंधी और तदर्थ सेवा शुल्क/निरीक्षण शुल्क नहीं लिया जाता है। एसएचजी को पात्र प्राथमिकता क्षेत्र ऋण के मामले में, यह सीमा प्रति सदस्य लागू होती है, न कि पूरे समूह पर।
बैंकों को बिना किसी कठिनाई के अपने एसएचजी ऋणों की रिपोर्ट करने में सक्षम बनाने के लिए, यह निर्णय लिया गया कि बैंकों को संबंधित श्रेणियों के तहत एसएचजी के सदस्यों को आगे उधार देने के लिए एसएचजी को दिए गए अपने ऋणों की रिपोर्ट करनी चाहिए। 'एसएचजी को अग्रिम' इस बात पर ध्यान दिए बिना कि एसएचजी सदस्यों को किस उद्देश्य से ऋण वितरित किया गया है। एसएचजी को दिए गए प्राथमिकता क्षेत्र के ऋण को कमजोर वर्ग श्रेणी के अंतर्गत माना जाता है। स्वयं सहायता समूहों/सदस्य लाभार्थियों को बैंकों द्वारा दिए गए ऋण पर लागू ब्याज दर उनके विवेक पर छोड़ दिया गया है।
लिंकेज परियोजना में एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह देखी गई कि बैंकों से जुड़े लगभग 85 प्रतिशत समूह विशेष रूप से महिलाओं द्वारा बनाए गए ।

बैंकों को स्वयं सहायता समूहों के वित्तपोषण में अपनी शाखाओं को पर्याप्त प्रोत्साहन देते हुए और प्रक्रियाओं को सरल और आसान बनाते हुए उनके साथ संबंध स्थापित किये है।
तदनुसार, बैंकिंग क्षेत्र के साथ एसएचजी के प्रभावी जुड़ाव को सक्षम करने के लिए निम्नलिखित दिशानिर्देशों का पालन किया जात है।
एसएचजी को ऋण का प्रवाह बढ़ाने के लिए न्यूनतम प्रक्रियाओं और दस्तावेज़ीकरण की आवश्यकता वाली एक सरल प्रक्रिया है। बैंकों ने सभी परिचालन संबंधी अड़चनों को दूर करने का प्रयास किया है और शाखा प्रबंधकों को पर्याप्त मंजूरी देने की शक्तियां सौंपकर शीघ्रता से ऋण स्वीकृत करने और वितरित करने की व्यवस्था की है। ऋण आवेदन प्रपत्र, प्रक्रियाएँ और दस्तावेज़ सरल बनाये गए हैं। असंगठित क्षेत्र में ऋण प्रवाह के लिए चल रहे एसएचजी बैंक लिंकेज कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए, एसएचजी बैंक लिंकेज कार्यक्रम की निगरानी एसएलबीसी और डीसीसी बैठकों में किया जाता है। इसकी तिमाही आधार पर उच्चतम कॉर्पोरेट स्तर पर समीक्षा की जाती है। इसके अलावा, कार्यक्रम की प्रगति की समीक्षा नियमित अंतराल पर बैंकों द्वारा किया जाता है।
इस प्रकार बैको ने अपने देश निर्धनता को दूर करने में अहम भूमिका निभाई है।गरीबी उन्मूलन जैसे सरकारी कार्यक्रम जो बस एक ख्याली नारा बनकर रह गया था उसे मूर्त रूप दिया है। ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी जो आर्थिक समस्याओं जैसे भुखमरी, कुपोषण, अशिक्षा से पीड़ित है उन्हें उबारने में जीवंत भूमिका निभाई है।किसी भी निम्न परिवार की तरक्की तभी संभव है, जब उस घर की महिलाएं भी आत्मनिर्भर व स्वावलंबी बने।
महिला सशक्तिकरण की एक महत्वपूर्ण मुहिम है एसएचजी।स्वयं सहायता समूह का अर्थ है स्वयं की सहायता के लिए गठित समूह। दुनिया के कई देशों के साथ ही भारत में भी एसएचजी के कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।इस मुहिम में सरकारी तंत्र के साथ-साथ एनजीओ की भी भागीदारी अहम होती है।

दरअसल, बिहार में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन की दिशा में बिहार जीविकोपार्जन प्रोत्साहन समिति (जीविका) एक सशक्त व प्रभावी कार्यक्रम के रूप में सूबे की ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी में बदलाव लाने का माध्यम बन कर सामने आई है। बिहार सरकार आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े ऐसे ही परिवारों को संबल देने के उद्देश्य से जीविका कार्यक्रम चला रही है। इस योजना के अंतर्गत देसी शराब एवं ताड़ी के उत्पादन तथा बिक्री में पारंपरिक रूप से जुड़े परिवार, अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अन्य समुदाय के लक्षित अत्यंत निर्धन परिवारों का चयन कर उनका क्षमतावर्द्धन, आजीविका संवर्धन एवं वित्तीय सहायता के माध्यम से आर्थिक व सामाजिक सशक्तीकरण करना लक्ष्य बखूबी हासिल किया है।
जीविका से लोन लेकर समूह की महिलाएं बकरी पालन, सब्जी की खेती व व्यवसाय, छोटे-छोटे कारोबार कर रही हैं। इसके साथ ही वे सामाजिक परिवर्तन की वाहक भी बन रही हैं। जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र, नशामुक्ति अभियान, महिला हिंसा, शुद्ध पेयजल, स्वच्छता-सफाई, बाल-विवाह, दहेज के लिए हिंसा जैसे मुद्दों पर जीविका दीदी बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं।
बिहार सरकार द्वारा विश्व बैंक के सहयोग से 2007 में जीविका का गठन कर परियोजना का शुरुआत किया गया। जीविका समूह-संगठन के माध्यम से ग्रामीण अत्यंत निर्धन परिवार की महिलाओं को आर्थिक उपार्जन का साधन तो उपलब्ध करवाती ही है, साथ ही, उनमें वित्तीय लेनदेन, लघु ऋण एवं लेखा प्रबंधन का हुनर भी सिखाती है। इन महिलाओं को स्वरोजगार व बैंकिंग क्रियाकलापों से जोड़ना एवं सामाजिक उत्थान के कार्यक्रमों से जोड़कर उन्हें सम्मान की जिंदगी जीने की दिशा में भी जीविका कारगर सिद्ध हो रही है। वर्तमान में बिहार में लगभग 1.50 करोड़ से ज्यादा जीविका दीदी हैं।राज्य के मुख्यमंत्री भी इनके काम से खुश हैं और इनकी संख्या को बढ़ाना चाहते हैं ताकि इनकी अच्छी आमदनी हो सके।
स्वयं सहायता समूह महिलाओं को सशक्त बनाते हैं और उनमें नेतृत्व कौशल विकसित करते हैं।बिहार में अधिकार प्राप्त महिलाएंँ ग्राम सभा व अन्य चुनावों में अधिक सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं।
बिहार में जीविका के माध्यम से स्वयं सहायता समूहों के गठन से समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार के साथ परिवार में उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है और उनके आत्म-सम्मान में भी वृद्धि हुई है।

सरकारी योजनाओं के अधिकांश लाभार्थी कमज़ोर और हाशिए पर स्थित समुदायों से हैं, इसलिये स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से उनकी भागीदारी सामाजिक न्याय सुनिश्चित करती है।

प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को ऋण देने के मानदंड और रिटर्न का आश्वासन बैंकों को स्वयं सहायता समूहों को ऋण देने के लिये प्रोत्साहित करता है। नाबार्ड द्वारा अग्रणी स्वयं सहायता समूह-बैंक लिंकेज कार्यक्रम ने ऋण तक पहुंँच को आसान बना दिया है तथा पारंपरिक साहूकारों एवं अन्य गैर-संस्थागत स्रोतों पर निर्भरता कम कर दी है।

स्वयं सहायता समूहों सूक्ष्म-उद्यमों की स्थापना में सहायता प्रदान करके कृषि पर निर्भरता को आसान बनाता है।
स्वयं सहायता समूह आंदोलन ग्रामीण क्षेत्रों में महिला लचीलापन और उद्यमिता के सबसे शक्तिशाली इन्क्यूबेटरों में से एक है। यह गांँवों में लैंगिक सामाजिक निर्माण को बदलने के लिये एक शक्तिशाली चैनल है।
महिलाएंँ कई क्षेत्रों में बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट, बैंक सखियों, किसान सखियों और पशु सखियों के रूप में काम कर रही हैं।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के इस युग में महिलाएंँ अपनी स्वाधीनता, अधिकारों और स्वतंत्रता, सुरक्षा, सामाजिक स्थिति आदि के लिये अधिक जागरूक हैं। जीविका की सहायता से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएंँ अब आय के स्वतंत्र स्रोत बनाने में सक्षम हैं।स्वयं सहायता समूह समाज के ग्रामीण तबके की महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इसके अलावा सरकारी कार्यक्रमों को विभिन्न स्वयं सहायता समूह के माध्यम से लागू किया जा सकता है। यह न केवल पारदर्शिता और दक्षता में सुधार करेगा बल्कि हमारे समाज को प्रगति की राह पर ले जाएगा।समाज के प्रगति करने से राज्य का और राज्य के प्रगति करने से राष्ट्र का प्रगति होता है।
बिहार ने जीविका के माध्यम से स्वयं सहायता समूह की मदद से आधी आबादी को प्रगति से जोड़कर समाज की मुख्य धारा में शामिल करके बिल्कुल ही पिछड़ी अर्थव्यवस्था में नए आयाम स्थापित करते हुए समाज को प्रगति की एक नई दिशा प्रदान की है जिससे हर घर परिवार में खुशहाली की लहर दौड़ रही है। बिहार में पहले रोजगार की काफी कमी थी जिसकी वजह से राज्य की जनसंख्या की एक बड़ी आबादी दूसरे राज्यों में पलायन करने पर मजबूर थी।

मैं यहाँ पर बिहार के एक लोकगीत की कुछ पंक्तियों का उल्लेख करना चाहूँगी जिसमें बेरोजगारी की वजह से परिवार का पेट नहीं भर पाने तथा भूखे रहने का नायिका का दर्द ,जठराग्निग की ज्वाला को शांत करने के लिए अपने पति से पंजाब जाकर नौकरी करने के आग्रह के रूप में सामने आता है।वह कहती है कि यहाँ से चलो वहाँ हम दोनों मिलकर मेहनत मजदूरी करेंगे, तुम लोहा और लकड़ी उठाना और मैं टोकरी उठाउंगी।हमें मजदूरी के रूप में दस रुपये रोज तो मिल ही जायेंगे जिससे कम से कम हमारा पेट तो भरा रहेगा। मैं अपने परिवार एवं बच्चों को भूख से तड़पते हुए नहीं देख सकती। प्रस्तुत है लोकगीत की वह पंक्तियां जो कुछ समय पहले के बिहार की भयावह स्थिति को जीवन्त करते हैं :-
"चल रे इअरवा पंजाब करे नोकरी
चल रे इअरवा
तू ढोईहे लोहा लक्कड़ हम ढोएम टोकरी
तू ढोईहे लोहा लक्कड़ हम ढोएम टोकरी
आ दस रुपया रोज मिली भरल रही धोकरी
चल रे इअरवा
चल रे इअरवा पंजाब करे नोकरी
चल रे इअरवा"

ऐसे में स्वयं सहायता समूह ने बिहार को बेरोजगारी एवं भूखमरी के उस दौर एवं दर्द से निकालकर प्रगति का जो मार्ग प्रशस्त किया है उससे बिहार की आत्मविश्वास के साथ मुस्कुराती हुई तस्वीर भारत के साथ साथ पूरे विश्व के समक्ष उभरकर आई है।
जीविका के माध्यम से बिहार के इस ऊँचाई तक आर्थिक प्रगति में स्वयंसहयता समूहों के साथ साथ बैंकों की भूमिका भी अत्यंत प्रशंसनीय और सराहनीय रही है जो पूरे देश की प्रगति के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण एवं अतुलनीय उपलब्धि है।


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